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प्राचीन काल में देवासुर संग्राम में देवताओं द्वारा पराजित बलि के शरीर से बाणो द्वारा जो रक्त की बूंदे पृथ्वी पर गिरी वे सब ही सब ओर लहसुन आदि के रूप में पैदा हो गई।
ब्रह्माण्डपुराण।मध्य-भाग।१४।२२
इसीलिये लहसुन पूजा व अन्य कार्यों में वर्जित है।

प्राचीन काल में देवासुर संग्राम में देवताओं द्वारा पराजित बलि के शरीर से बाणो द्वारा जो रक्त की बूंदे पृथ्वी पर गिरी वे सब ही सब ओर लहसुन आदि के रूप में पैदा हो गई।
ब्रह्माण्डपुराण।मध्य-भाग।१४।२२
इसीलिये लहसुन पूजा व अन्य कार्यों में वर्जित है।
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प्राचीन काल में महात्मा देवेश के मना करने पर भी त्वष्टा विश्वकर्मा ने इन्द्र का सोमपान कर लिया था, जिसे पीते ही वह पृथ्वी पर गिर पड़ा, जो सांवां के रूप में पैदा हुआ। जो सांवां पितरों के लिए पूजित माना गया है। उसी समय ओंछ लगने पर नाक
ब्रह्माण्डपुराण।मध्य-भाग।१४।६-८

प्राचीन काल में महात्मा देवेश के मना करने पर भी त्वष्टा विश्वकर्मा ने इन्द्र का सोमपान कर लिया था, जिसे पीते ही वह पृथ्वी पर गिर पड़ा, जो सांवां के रूप में पैदा हुआ। जो सांवां पितरों के लिए पूजित माना गया है। उसी समय ओंछ लगने पर नाक
ब्रह्माण्डपुराण।मध्य-भाग।१४।६-८
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रात्रि में श्राद्ध कर्म वर्जित रखना चाहिए, रात्रि को अन्य अवसर पर जब राहु सूर्य को ग्रस रहा हो अर्थात सूर्यग्रहण के अवसर पर सर्वस्व व्यय करके राहु का दर्शन होने पर (सूर्यग्रहण जब तक रहे तब तक) श्राद्ध शीघ्र करना चाहिए। जो व्यक्ति ग्रहण
ब्रह्माण्डपुराण।मध्यभाग।१४।३-४

रात्रि में श्राद्ध कर्म वर्जित रखना चाहिए, रात्रि को अन्य अवसर पर जब राहु सूर्य को ग्रस रहा हो अर्थात सूर्यग्रहण के अवसर पर सर्वस्व व्यय करके राहु का दर्शन होने पर (सूर्यग्रहण जब तक रहे तब तक) श्राद्ध शीघ्र करना चाहिए। जो व्यक्ति ग्रहण
ब्रह्माण्डपुराण।मध्यभाग।१४।३-४
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श्राद्धों में श्रद्धा ना रखने, पापात्मा, नास्तिक, जिसका संदेह नहीं दूर हुआ है यर्थाथ संदेह करने वाला तथा सभी कार्यों में कारण खोजने वाला व्यक्ति, ये पांँचो तीर्थ़ो में फल प्राप्त करने के अधिकारी नहीं होते।
ब्रह्माण्डपुराण।मध्य-भाग।१३।१३५

श्राद्धों में श्रद्धा ना रखने, पापात्मा, नास्तिक, जिसका संदेह नहीं दूर हुआ है यर्थाथ संदेह करने वाला तथा सभी कार्यों में कारण खोजने वाला व्यक्ति, ये पांँचो तीर्थ़ो में फल प्राप्त करने के अधिकारी नहीं होते।
ब्रह्माण्डपुराण।मध्य-भाग।१३।१३५
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शिव जी ने जब त्रिपुरासुर को मारने का उद्योग किया। उस समय हाथ मे धनुष-बाण लिए हुए भगवान शंकर अपना एक पैर ऋग्वेदरूप घोड़े की तथा दूसरा पैर नंदीश्वर की पीठ पर रख कर त्रिपुरों के परस्पर सम्मिलन की प्रतीक्षा करते हुए खड़े हो गए। उस समय शंकरजी के पैर
मत्स्यपुराण।१३८।४०-४२

शिव जी ने जब त्रिपुरासुर को मारने का उद्योग किया। उस समय हाथ मे धनुष-बाण लिए हुए भगवान शंकर अपना एक पैर ऋग्वेदरूप घोड़े की तथा दूसरा पैर नंदीश्वर की पीठ पर रख कर त्रिपुरों के परस्पर सम्मिलन की प्रतीक्षा करते हुए खड़े हो गए। उस समय शंकरजी के पैर
मत्स्यपुराण।१३८।४०-४२
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तदेजति तन्नैजति तद्दूरे तद्वन्तिके।
तदन्तरस्य सर्वस्य तदु सर्वस्यास्य बाह्यत:।।
ईशावास्योपनिषद।मन्त्र-५
वह आत्मतत्व चलता है और नहीं भी चलता। वह दूर है और समीप भी है। वह सबके अन्तर्गत है और इस सबके बाहर भी है।।

तदेजति तन्नैजति तद्दूरे तद्वन्तिके।
तदन्तरस्य सर्वस्य तदु सर्वस्यास्य बाह्यत:।।
ईशावास्योपनिषद।मन्त्र-५
वह आत्मतत्व चलता है और नहीं भी चलता। वह दूर है और समीप भी है। वह सबके अन्तर्गत है और इस सबके बाहर भी है।।
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श्राद्धकर्म में जो पितरों की पूजा बिना किये ही अन्य क्रिया का अनुष्ठान करेगा, उसकी उस क्रिया का फल राक्षस तथा दानवों को प्राप्त होगा।
ब्रह्माण्डपुराण।मध्यभाग।९।२८

श्राद्धकर्म में जो पितरों की पूजा बिना किये ही अन्य क्रिया का अनुष्ठान करेगा, उसकी उस क्रिया का फल राक्षस तथा दानवों को प्राप्त होगा।
ब्रह्माण्डपुराण।मध्यभाग।९।२८
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यस्तु सर्वाणि भूतान्यात्मन्येवानुपश्यति।
सर्वभूतेषु चात्मानं ततो न विजुगुप्सते।।
ईशावास्योपनिषद।मन्त्र-६
जो (साधक) सम्पूर्ण भूतों को आत्मा में ही देखता है और समस्त भूतों में भी आत्मा को ही देखता है, वह इस (सार्वातम्यदर्शन) - के कारण ही किसी से घृणा नही करता।

यस्तु सर्वाणि भूतान्यात्मन्येवानुपश्यति।
सर्वभूतेषु चात्मानं ततो न विजुगुप्सते।।
ईशावास्योपनिषद।मन्त्र-६
जो (साधक) सम्पूर्ण भूतों को आत्मा में ही देखता है और समस्त भूतों में भी आत्मा को ही देखता है, वह इस (सार्वातम्यदर्शन) - के कारण ही किसी से घृणा नही करता।
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जहां पर धर्मात्मा ब्राह्मण को छोड़कर किसी धूर्त या मूर्ख ब्राह्मण को भोजन कराया जाता है, वहां पर दान देने वाला अथवा भोजन कराने वाला यजमान अपने पहले वाले अच्छे कर्मों को नष्ट करता हुआ भी पूरी तरह नष्ट हो जाता है
ब्रह्माण्डपुराण।मध्यभाग।१२।२९-३०

जहां पर धर्मात्मा ब्राह्मण को छोड़कर किसी धूर्त या मूर्ख ब्राह्मण को भोजन कराया जाता है, वहां पर दान देने वाला अथवा भोजन कराने वाला यजमान अपने पहले वाले अच्छे कर्मों को नष्ट करता हुआ भी पूरी तरह नष्ट हो जाता है 
ब्रह्माण्डपुराण।मध्यभाग।१२।२९-३०
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सूत जी बोले की - हे ऋषियों! देवता और पितरगण जो परस्पर एक-दूसरे से नियत कहे गए हैं, उनकी पूजा के विषय में बृहस्पति जी ने अथर्ववेद के अनुसार यह विधि बताई है कि पहले पितरों की उसके बाद देवताओं की पूजा करनी चाहिए;
ब्रह्माण्डपुराण।मध्यभाग।तृतीय-उपोद्घात-पाद।अध्याय-१२।१-२

सूत जी बोले की - हे ऋषियों! देवता और पितरगण जो परस्पर एक-दूसरे से नियत कहे गए हैं, उनकी पूजा के विषय में बृहस्पति जी ने अथर्ववेद के अनुसार यह विधि बताई है कि पहले पितरों की उसके बाद देवताओं की पूजा करनी चाहिए;
ब्रह्माण्डपुराण।मध्यभाग।तृतीय-उपोद्घात-पाद।अध्याय-१२।१-२
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अग्नि में विशेषतया खूब प्रज्वलित हो जाने पर अधिक हवि डालनी चाहिए, कर्म सिद्धि के लिए दहकती हुई बिना धुएंँ की आग में हवि डालनी चाहिए। पूरी तरह समिधाये न जलने वाली अग्नि में जो यजमान यज्ञ करता है, वह अन्धा एवं पुत्रविहीन होता
ब्रह्माण्डपुराण।मध्यभाग।अध्याय-११।९९-१०१

अग्नि में विशेषतया खूब प्रज्वलित हो जाने पर अधिक हवि डालनी चाहिए, कर्म सिद्धि के लिए दहकती हुई बिना धुएंँ की आग में हवि डालनी चाहिए। पूरी तरह समिधाये न जलने वाली अग्नि में जो यजमान यज्ञ करता है, वह अन्धा एवं पुत्रविहीन होता  
ब्रह्माण्डपुराण।मध्यभाग।अध्याय-११।९९-१०१
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इस मन्त्र को ब्रह्मा जी ने रचा था। यह अमृत मन्त्र है - 'देवताभ्य:, पितृभ्य: महायोगिभ्य एव च। नमः स्वाधायै स्वाहायै नित्यमेव भवत्युत।।' इसका अर्थ है कि सभी देवताओं, पितरों, महायोगियों, स्वाहा एवं स्वधा सबको हम नमस्कार करते हैं। यह
ब्रह्माण्डपुराण।मध्यभाग।११।१६-२२

इस मन्त्र को ब्रह्मा जी ने रचा था। यह अमृत मन्त्र है - 'देवताभ्य:, पितृभ्य: महायोगिभ्य एव च। नमः स्वाधायै स्वाहायै नित्यमेव भवत्युत।।' इसका अर्थ है कि सभी देवताओं, पितरों,  महायोगियों, स्वाहा एवं स्वधा सबको हम नमस्कार करते हैं। यह   
ब्रह्माण्डपुराण।मध्यभाग।११।१६-२२
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जो मनुष्य पोषण की कामना करते हुए श्राद्ध करेंगे, उनके पितरगण सदा पोषण और सन्तान प्रदान करेंगे। जिनके लिये श्राद्ध में नाम और गोत्र उच्चारण के साथ तीन पिण्ड दान करेंगे, वहां सर्वत्र वे पितर और पितामह वर्तमान रहते हुए उस
ब्रह्माण्डपुराण।मध्यभाग।९।३१-३३

जो मनुष्य पोषण की कामना करते हुए श्राद्ध करेंगे, उनके पितरगण सदा पोषण और सन्तान प्रदान करेंगे। जिनके लिये श्राद्ध में नाम और गोत्र उच्चारण के साथ तीन पिण्ड दान करेंगे, वहां सर्वत्र वे पितर और पितामह वर्तमान रहते हुए उस 
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मोहिनी एकादशी कथा पद्मपुराण से। वैशाख मास शुक्ल पक्ष एकादशी। Mohini Ekadashi Katha Padampuran 2024 2024 ayan
youtu.be/YArePNK7pq0

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वरुथिनी एकादशी कथा पद्मपुराण से, वैशाख मास कृष्ण पक्ष एकादशी ekadashi
youtu.be/lMGLGT7sc_s

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