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बड़े और भारी पत्थर के नीचे
बची रह जाती है
अनुकूलताओं की छटाँक भर नमी
पर घृणा में कुछ नहीं बचता
प्रतिकूलता भी नहीं
बचती है तो केवल घृणा
जिसे बोलते वक़्त तुम
‘र’ को जितना घुमाओगे
वह उतनी ही गाढ़ी होती जाएगी।
-पायल भारद्वाज
खिड़की khidkee
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बड़े और भारी पत्थर के नीचे
बची रह जाती है
अनुकूलताओं की छटाँक भर नमी
पर घृणा में कुछ नहीं बचता
प्रतिकूलता भी नहीं
बचती है तो केवल घृणा
जिसे बोलते वक़्त तुम
‘र’ को जितना घुमाओगे
वह उतनी ही गाढ़ी होती जाएगी।
-पायल भारद्वाज
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सौम्य मालवीय //

फिर ढह गया
एक पहाड़
नहीं उठा सका अपना बोझ
अपनी लुजलुजी हो चुकी देह को

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क्या कभी तुमने है देखा
प्राण धारक को अचेता?
नर हूँ! ज्योति तो जलेगी
शक्ति है! कुछ तो रचेगी
और उन रचनाओं का मैं
मध्य कण का मध्य बेला
किंतु अंतिम चंद्र ओढ़े
मैं भी हूँ सब सा अकेला।
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खिड़की khidkee

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क्या कभी तुमने है देखा
प्राण धारक को अचेता?
नर हूँ! ज्योति तो जलेगी
शक्ति है! कुछ तो रचेगी
और उन रचनाओं का मैं
मध्य कण का मध्य बेला
किंतु अंतिम चंद्र ओढ़े
मैं भी हूँ सब सा अकेला।
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